इक्लीसिया के कार्य

ग्रेगोरी ने आराधना को बिलकुल गड़बड़ बना दियाः यह रूचिकर है कि नये नियम में विश्वासीगण कभी भी सिर्फ आराधना करने के लिये जमा नहीं होते थे और वे अपनी गवाहियों को आपस में बांटते थे, वचन का मनन करते थे, प्रार्थना करते थे और मिल बांटकर साधारण भोजन करके सहभागिता संगति लेते थे। छटवीं शताबदी में पोप ग्रेगोरी आई (I) ने जो एक सनुशासन प्रिय व्यक्ति था, घरेलू स्वेच्छिकता और खुलेपन को अच्छा नहीं माना जैसा कि बहुत से अगुवे करते हैं, वह चर्च को नियंत्रित करना चाहता था, इसलिये उससे ‘‘आराधना का क्रम ‘‘बनाया जिसमें पहले गीत तब धर्मशास्त्र के चुने हुए पाठों को पढ़ना, इसके बाद संदेश, और सूचनांए, चंदा, और तब अतं में आशीर्वाद। ग्रेगोरी के आराधना का सुधारा गया स्वरूप जिसका कोई बाइबिल आधार नहीं है, सभी चर्च मण्डलियों में पालन किया जाता है बिरले ही कुछ झुण्ड हैं जो इसे नहीं मानतें है जैसे क्वेकर्स। इस प्रकार की आराधना आपको ‘‘क्रमबद्धता‘‘ की अनुभूति तो देती है, परन्तु इससे कोई उपलब्धि नहीं, प्राप्त होती; जबकि हो सकता है कि घरेलू इक्लीसिया की आराधना बेसिलसिलेवार और अव्यवस्थित मालूम पड़ती हो परन्तु वह बहुत फलदायक होती है। 

यीशु कार्यशीलता से भरी आराधना का आदेश देते हैंः यीशु ने कभी भी इस प्रकार की औपचारिक आराधना करने के आदेश नहीं दिये हैं। उन्होंने कार्यशीलता से भरी आराधना का आदेश दिये हैं। उन्होंने कहे हैं कि जाओ और अधोलोक के फाटकों को ध्वस्त कर दो, बलवंत (शैतान) को बांधो, बीमारों को चंगा करो, और दुष्ट आत्माओं को निकालकर भगा दो-यह आराधना का एक बहुत रूचिकर रूप है। इसी प्रकार वे (प्रभु यीशु) प्रतिदिन अपने पिता की आराधना करते थे, वे कहते हैं, ‘‘मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओं’’ अर्थात बहुत से शिष्य बनाओ (मत्ती 16ः18,19; 12ः29;28ः19; यूहन्ना 15ः8)। 

मन्दिर में मछली पकड़नाः प्रभु यीशु मन्दिर में कभी भी आराधना करने नहीं गए। यीशु जब कभी मन्दिर में एक तो उनका वहां मन्दिर के अधिकारियों के साथ आमना सामना हो जाता था इसलिये उनके चेलों के लिये कोई कारण नही था कि वे मन्दिर में अपने प्रभु की मृत्यु और पुनरूत्थान के बाद किसी उत्सव के लिये जाते। बाद में उनके चेले वहां के लोगों को अपनी गवाही देने गए और उनमें से बहुतों को ले आए तथा भोजन की मेज पर उन्हें शिष्य बना लिया। (प्रेरितों के काम 3ः1), क्योंकि विश्वासी लोग वहां पर दिन के समय कम से कम पांच बार जमा होते थे। चतुर मछुवारे होने के कारण वे अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें मछलियों को कब और कहां पकड़ना चाहिये और, ‘‘प्रार्थना के समय’’ में मन्दिर सबसे उत्तम स्थान था (प्रेरितों के काम 3ः1)। थोड़े ही समय में उन्होंने कई ‘‘मछलियां’’ पकड़लीं,’’ और पूरे शहर को उनकी शिक्षाओं से भर दिया। इसके परिणाम स्वरूप मन्दिर के अधिकारियों में भयंकर प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई जिन्होंने उन्हें गिरफ्तार किया और कोड़ों से खूब मारा (प्रेरितों के काम 5ः17)। 

भेड़ों का चुराना बाइबिल के अनुसार हैः पेन्टिकॉस्टलों पर अकसर भेड़ चुराने का दोष लगाया जाता है, परन्तु यह कोई नई बात नहीं है। यीशु ने अन्द्रियास, पतरस और यूहन्ना को लिया जो पहिले यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के जाने माने चेले थे और उन्हें अपने प्रथम चेले बनाया (यूहन्ना 1ः35-42)। पौलूस ने प्रत्येक शहर की सिनेगॉगों में से भोड़ो को चुराया। और नई नई असैम्बलियों को आरम्भ कर दिया। परम्परागत चर्चों में से कुछ भेड़ों को अलग करके असैम्बलियों को प्रारम्भ करना, शहर को सुसमाचार से भरने का अच्छा तरीका है। परन्तु तौभी भेड़ों को एक चर्च से चुराकर दूसरे चर्च के दासत्व में नहीं डालना चाहिये। उन्हें केवल इसीलिये चुराना चाहिये कि नई घरेलू असैम्बलियां चालू की जांए। परन्तु वहां के अधिकारियों के क्रोध का सामना करने के लिये भी तैयार रहना होगा।

सहभागिताः यूनानी शब्द ‘‘कोईनोनिया’’ (Koinonia) का अर्थ, रविवार की प्रातः हाथ मिलाने की औपचारिकता से कहीं अधिक है, इसका अर्थ है, आपस में बांटना (Sharing) आर्थिक सहयोग, तथा भाग, लेना इत्यादि यहां तक कि मसीह के दुःखों में और साथी विश्वासियों के दुःखों में भी साथ निभाना। इसका अर्थ सभा के समय एक दूसरे के साथ संवाद करना भी है। यह नये नियम की इक्लीसिया का प्रमुख शब्द है, और वह प्रस्तुत करता है, ‘‘एक मन और एक प्राण’’ को जिसके परिणाम स्वरूप वे एक दूसरे की चिन्ता करते और अपनी आत्मिक और सांसारिक सम्पत्ति भी आपस में बांट लेते थे (प्रेरितों के काम 4ः32,34)। अन्य जातीय लोग विश्वासियों के प्रेम भरे सम्बन्धों को देखकर आश्चर्य करते थे, यहां तक कि अत्याधिक सताव के होते हुूए भी (प्रेरितों के काम 2ः42; 5ः41, 42) वे इस सम्बन्ध को बनाए रखते थे। यह नई वाचा का पूर्ण होना है, जिसके विषय में यीशु ने अपने चेलों को आज्ञा दिये थे, ‘‘एक दूसरे से प्रेम रखो, जैसा मैंने तुमसे प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो, यदि तुम आपस में प्रेम रखोगे तो इसीसे सब (सम्पूर्ण विश्व) जानेंगे कि तुम मेरे चेले हो’’ (यूहन्ना 13ः34,35)। यह परमेश्वर और इब्राहीम की बीच बान्धी गई वाचा का भी पूर्ण होना है, जहां परमेश्वर ने कहे थे, ’’पृथ्वी की सारी जातियां अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी’’ (उत्पत्ति 2ः1-3; 22ः17,18)

स्वेच्छिक आराधनाः नये मिये की इक्लीसिया में स्वेच्छिक आराधना हुआ करती थी, वह लिखित ‘‘क्रमानुसार सर्विस (सेवा)’’ के अनुसार नहीं होती थी जो क्रमानुसार रीति से आत्मा को भी मार डालती है (यूहन्ना 4ः23,24; भजन 96ः7,8)। वे स्पष्ट रीति से अच्छी तरह समझ गए थे कि परमेश्वर की महिमा बहुत फल लाने से ही होती है (यूहन्ना 15ः8), और केवल ठनठनाते पीतल और झनझनाती हुई झांझ की तरह आवाज करने से आराधना नहीं होती। इक्लीसिया में खाली हाथ आना और बिना एक भ्ज्ञी आत्मा के बचाए, ‘‘हल्लेलूयाह, परमेश्वर की महिमा हो’’ चिल्लाने का कोई औचित्य नहीं है। आप स्वेच्छिक आराधना का बलिदान किसी भी समय और कहीं भी अन्य जातियों को अपने परिश्रम के फल के रूप में चढ़ाकर पूरा कर सकते हैं। आराधना किस प्रकार की जा रही है, इसके कारण स्वर्ग में आनन्द नही होता परन्तु परमेश्वर के पवित्र स्वर्गदूत उस समय बड़ा आनन्द मनते हैं, जब एक भटकी हुई आत्मा बच जाती है (निर्गमण 23ः15; मत्ती 7ः21-33; फिलिप्पियों 1ः21; लूका 15ः10)। 

कोई व्यवसायिक संगीत नहींः यीशु ने कभी कोरस नहीं गाए। उनके चेलों ने एक भजन गाए थे, जब प्रभु क्रूस पर चढ़ाए जाने को थे (मत्ती 26ः30)। परन्तु उनके आधुनिक अनुयाई धर्मशास्त्र रहित, व्यावसायिक संगीत से मन्त्रमुग्ध हैं। मंदिर में व्यावसायिक संगीत कुछ साजों के के साथ जैसे वीणा, खंजरी, झांझ और तुरहियों के साथ हुआ करता था। आर्गन संगीत मार्टिन लूथर द्वारा लगाया गया। तथापि नये नियम की इक्लीसियाओं में गीतों का गाया जाना  आपों आप होने वाला और स्वेच्छिक था, ‘‘सिद्ध ज्ञान सहित एक दूसरे को सिखाओ और चिताओ और अपने अपने मन में अनुग्रह के साथ परमेश्वर के लिये भजन और स्तूतिगान और आत्मिक गीत गाओ’’ (इब्रानियों 2ः12; कुलुस्सियों 3ः16; इफिसियों 5ः19)। नये नियम में कहीं भी वाद्य यंत्रों के विषय में नहीं लिखा गया है। एक ही घटना का वर्णन हमें मिलता है जब जोर से भजन और स्तूतिगान किया गया था और वह समय था जब पौलूस और सीलास बंदीग्रह में बंद थे। एक दूसरे अवसर पर चेलों ने स्तूति की जब भंयकर सताव आ पड़ा था। इन दोनों अवसरों के परिणाम स्वरूप पृथ्वी हिल गई थी और लोगों के परिवर्तन भी हुए थे (प्रेरितों के काम 16ः25; 4ः23-31)। बहुत से देशों में लोग पूरी तरह पश्चिम विरोधी है, और यह मसीहियों के विरोध में बदल जाता है। हमारे संगीत और गीत इस बात को निश्चित व दृढ़ करते हैं कि मसीहियत एक पश्चिमी धर्म है। नये नियम में यह केवल परमेश्वर के स्तूति के गीत गाना नहीं है, परन्तु भजनों और आत्मिक गीतों के माध्यम से एक दूसरे के साथ संवाद करना और एक दूसरे को आत्मिक मजबूती देना भी है। हमें अपने मनो में आत्मिक गीत गाने के लिये कहा गया है, और अन्यजातियों के साम्हने भी गाने के लिये कहा गया है ताकि वे भी आनन्दित चर्चों में जितना भी व्यावसायिक संगीत बजता है, वह केवल मनोरंजन मात्र है। बाबुल के बन्धुओं ने अपनी अपनी वीणाओं को मजनुओं के पेड़ों पर लटका दिये थे। स्वेच्छिक गीत ही आराधना है (भजन 96ः1-2; 137ः1-4)। वैसे भी, मसीही गीत अधिकांशतः आत्म केन्द्रित और व्यक्ति परक होते हैं। यह इस विषय पर है कि, ‘‘मैं अपने यीशु से प्रेम रखता हूं, और वह मुझसे प्रेम रखता है’’। वाले गीत गाते हैं। 

अन्य अन्य भाषा बोलना सार्वजनिक जगहों पर मनाः कलीसिया/चर्च के साथ समस्या यह है कि वह बोलती अधिक है और सुनने में बहरी है। परमेश्वर ने मूसा से 47 बार बातें की और मूसा ने केवल 11बार उत्तर दिये। बाकी समयों में वह ध्यान पूर्वक सुनता रहा और उन कार्यों को करता गया जिन्हें पवित्र आत्मा चाहते थे, कि वह करे। इसके अलावा भी हमें पवित्र आत्मा को हमारे द्वारा प्रार्थना करने देना चाहिये क्योंकि हम नहीं जानते कि हमेें प्रार्थना कैसे करना चाहिये और क्या प्रार्थना करें (रोमियों 8ः26,27)। अन्य अन्य भाषाओं का बोलना व्यक्तिगत प्रार्थनाओं में बहुत काम में लाई जाता है, परन्तु सार्वजनिक जगहों में नहीं, विशेष कर जब वहां अन्यजातीय लोग उपस्थित हों और जब तक वहां कोई अनुवाद करने वाला उपस्थित न हो (1कुरिन्थियों 14ः22-28)। यह नये नियम की इक्लीसिया में बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि वहां बहुत से नये जन उपस्थित रहते थे, जो वहां प्रार्थना करवाने या नई शिक्षाओं को सुनने आते थे या और भी कुछ लोग होते हैं जो वहां कौतूहल वश आ जाते हैं। ऐसे लोग अन्य अन्य भाषा सुनकर, भ्रमित हो जाएंगे। कलीसिया में सामुहिक रीति से अन्य अन्य भाषा भाषाओं में प्रार्थना करने की एक और बड़ी हानि यह है कि प्रत्येक जन अपनी अपनी प्रार्थनाएं करता है और इसलिये वहां लोग ‘‘एक मन और एक चित’’ नहीं हो पाते। 

एक चित्त होकर प्रार्थना करें और अलौकिक परिणामों की कामना करेंः प्रारम्भिक इक्लीसिया के पूरे समयों में हम देखते हैं कि चेले ‘‘एक चित्त’’ होकर प्रार्थना करते थे (प्रेरितों के काम 1ः14; 2ः1; 2ः46; 4ः24) प्रेरितों ने पहिले ही यह निर्णय ले लिया था कि वचन की सेवकाई और प्रार्थना की सेवकाई उनकी आधारभूत सेवकाईयां होगी (प्रेरितों के काम 6ः3,4)। इसलिये जब कभी कोई विपत्ती आती थी, वे कई घंटे प्रार्थनाओं में बिताते थे, जब तक उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर ईश्वरीय अलौकिक रीति से नहीं मिल जाता था (प्रेरितों के काम 12ः5)। प्रभावी ढंग से प्रार्थना करने के लिये हमें ‘‘आत्मा में भी प्रार्थना करना चाहिये और बुद्धि से भी प्रार्थना करना चाहिये’’ ताकि ‘‘जिससे पूरी देह एक होकर जुड़ (गठ) जाती है’’ (1करिन्थियों 14ः12-18; कुलुस्सियों 2ः2)। 

नगर को हिला देने वाली प्रार्थनाः पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा बड़ी सामर्थ के साथ उत्तरा और यरूशलेम के पूरे नगर को हिला दिया, जबकि वे सब एक साथ घर में बैठे हुए थे। इसका साधारण कारण यह था कि दस दिनों तक प्रार्थना करने के बाद वे सब ‘‘एक मन एक चित’’ थे (प्रेरितों के काम 2ः1-2)। एकता केवल एक मंडली तक सीमित नहीं होना चाहिये परन्तु शहर की सारी असैम्बलियों के जाल को एक होकर प्रार्थना करना चाहिये। विभाजित शहरीय इक्लीसियाएं खड़ी नहीं रह सकतीं। असैम्बलियों के मध्य एकता के बिना शहर नहीं बचाया जा सकता (मत्ती 12ः25)। यह महत्वपूर्ण है कि इक्लीसिया अपने छोटे स्वार्थी मसलों के लिये प्रार्थना करके धराशाई हो जाए जो शहरीय या क्षेत्रिय इक्लीसिया के परिपक्व होने का चिन्ह है (इफिसियों 4ः13-16)।  

शहर का नाम लेकर प्रार्थना करेंः पुराने नियम और नये नियम दोनों में शहर और देश, जैसे बाबुल, अश्शूर, मोआब, दमिश्क, कूश, पलिश्तीन और सदोम और अमोरा की भी आशीषें, श्राप या दण्ड नाम लेकर दिये हैं (नीतिवचन 11ः10, 11; भजन संहिता 106ः38)। लोग व्यक्तिगत रीति से पाप करते हैं परन्तु शहरों और संस्कृतियों का भी इतिहास है कि वे भी सामुहिक पापों में भागी होते रहे हैं और उनके भी छुटकारे की आवश्यक्ता होती है। जमीन व देश भी इन पापों के कारण दूषित हो जाते हैं। इस लिये चलते और भ्रमण करते हुए उन स्थानों के श्रापों को मिटाते जाना और प्रार्थना द्वारा आशीषें देते जाना बहुत महत्वपूर्ण है। यीशु ने यरूशलेम के लिये नाम लेकर प्रार्थना किये। हमें आदेश दिया गया है कि हम अपने शहरों की अच्छाई के लिये प्रार्थना करें (लूका 13ः34,35; यिर्मयाह 29ः7)। हमारी प्रार्थनाओं के द्वारा स्वर्गीय स्थानों में और पृथ्वी पर भी उथल पुथल हो जाना चाहिये जिसके परिणाम स्वरूप शहर और देश बदलते चले जाएं। यह बदलाव बहुमुखी होना चाहिये, जिसमें आत्मिक, सामाजिक, आर्थिक, परिस्थितिक और राजनीतिक बदलाव सम्मिलित हैं, नहीं तो वह बदलाव अधूरा होगा। यीशु आए कि हमें बहुतायत का जीवन प्राप्त हो, जो बिना धर्म निरपेक्ष या/ पवित्र कार्यों को किये प्राप्त होता है (प्रकाशित वाक्य 8ः3-5; इफिसियों 4ः16; मत्ती 12ः25; 1तीमुथियुस 2ः1-4)। 

शहर का नाम लेकर प्रार्थना करेंः पुराने नियम और नये नियम दोनों में शहर और देश जैसे बाबुल, अश्शुर, मोआब, दमिश्क, कूश, पलिश्तिीन, और सदोम और अमोरा की भी आशीषें, श्राप या दण्ड नाम लेकर दिये हैं (नीतिवचन 11ः10,11; भजन संहिता 106ः38)। लोग व्यक्तिगत रीति से पाप करते हैं परन्तु शहरों और उनके भी छुटकारे की आवश्यक्ता होती है। जमीन व देश भी इन पापों के कारण दूषित हो जाते हैं। इस लिये चलते और भ्रमण करते हुए उन स्थानों के श्रापों को मिटाते जाना और प्रार्थना द्वारा आशीषें देते जाना बहुत महत्वपूर्ण है। यीशु ने यरूशलेम के लिये नाम लेकर प्रार्थना किये। हमें आदेश दिया गया है कि हम अपने शहरों की अच्छाई के लिये प्रार्थना करें (लूका 13ः34,35; यिर्मयाह 29ः7)। हमारी प्रार्थनाओं को द्वारा स्वर्गीय स्थानों में और पृथ्वी पर भी अथल पुथल हो जाना चाहिये। जिसके परिणाम स्वरूप शहर और देश बदलते चले जांए। यह बदलाव बहुमुखी होना चाहिये, जिसमें आत्मिक, सामाजिक, आर्थिक, परिस्थितिक और राजनीतिक बदलाव सम्मिलित हैं, नहीं तो वह बदलाव अधूरा होगा। यीशु आए कि हमें बहुतायत का जीवन प्राप्त हो, जो बिना धर्म निरपेक्ष या/ पवित्र कार्यों को किये प्राप्त हो है, (प्रेरितों के काम 8ः3-5; इफिसियों 4ः16; मत्ती 12ः25; 1तीमुथियुस 2ः1-4)।

भविष्यद्वाणी करने वाले इक्लीसियाः परमेश्वर भी एक पिता की तरह अपने बच्चों से बिना किसी बिचवई के सीधे बातें करना चाहते हैं। इसीलिये वे सारी मनुष्य जाति पर अपना आत्मा उण्डेल रहे हैं ताकि वे सभी लोगों से बातें कर सकें। भविष्यद्वाणी करने का साधारण अर्थ है, पिता की बातों को सुनना और उसे दूसरों को बताना। इसका अर्थ यह नहीं है कि सब जन भविष्यद्वाक्ता हैं, परन्तु हम सब भविश्यद्वाणी कर सकते हैं। प्रारम्भिक इक्लीसिया, भविष्यद्वाणी करने वाली इक्लीसिया थी क्योंकि उसका प्रत्येक जन भविष्यद्वाणी करता था। वे उन्नति की, प्रोत्साहन, और शान्त्वना के लिये भविष्यद्वाणी करते थे। वे जानते थे कि परमेश्वर उस क्षेत्र में कुछ भी नहीं करेंगे जब तक वे अपने भविष्यद्वाक्ताओं को उसके विषय में न बता दें (1कुरिन्थियों 14ः3,31; आमोस 3ः7)। नूह, इब्राहिम, याकूब, यूसुफ, दानियेल इत्यादि छोटे बडे़ भविष्यद्वक्ताओं की लम्बी फहरिश्त के भाग हैं जिनसे परमेश्वर ने भिन्न तरीकों से बातें की। नये नियम में उन्होंने प्रेरितों के साथ कई प्रकार से बतें कीं। परन्तु अब वे अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर रहे हैं कि अन्त के दिनों में वे सभी साधारण लोगों पर अपने आत्मा को उण्डेलेंगे, (योएल 2ः28,29)। आज वे न केवल उस उभरती हुई इक्लीसिया से बातें कर रहे हैं जो सुदूर ग्रामों में हैं परन्तु वे मुस्लिम धार्मिक अगुवों और दूसरें गैरमसीहियों से भी बातें कर हरे हैं।

हम पूरी बाइबिल में देखते हैं कि परमेश्वर ने अलौकिक रीति से बातें की हैंः दानियेएल और यूसुफ ने स्वप्न द्वारा प्रधान मंत्री पद प्राप्त होने का मार्ग पाया (उत्पत्ति 41ः38-40; दानियेल 2ः46-48)। पुराने नियम के सभी भविष्यद्वक्ताओं ने दर्शन देखे (हकक्कूक 1ः5;2ः1-3)। वचन पढ़ने के द्वारा (दानियेल 9ः2,3)। मूसा से आमने सामने बातें करने के द्वारा (निर्गमण 33ः11) यशायाह, यूहन्ना और पौलूस स्वर्ग तक उठा लिये गए (यशायाह 6ः1-8; प्रकाशित वाक्य 4ः1,2; 2कुरिन्थियों 12ः2-4)। परमेश्वर ने पौलूस से सीधे बातचीत की जब वह दमिश्क के मार्ग पर था (प्रेरितों के काम 9ः3-6; हबक्कूक 1ः1,2)। एक स्वर्गदूत ने पौलूस, सीलास और तीमुथियुस से कहा, जब वे फ्रूगिया और गलतिया के मार्ग पर थे (प्रेरितों के काम 16ः6-8)। 

विश्व में केवल इक्लीसिया ही भविष्यद्वाणी की एक आवाज हैः प्रभु के द्वारा इक्लीसिया को पांच तहर के स्वर्गीय वरदान देने के बावजूद, भविष्यद्वक्तागण और प्रेरित लोग फिर भी जंगल में विचरण कर हरे हैं। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की सर्वसामर्थी त्रिएकता, हमारे कार्य करने के आदर्श नमूने हैं। उस सांसारिक प्रणाली ने जिसमें केवल एक उच्च अगुवा होता है, ने ‘‘मिलकर अगुवाई करने की’’ प्रणाली के ताने तो तोड़ डाला। इसमें कोई शक नहीं कि विश्व में आज चर्च भविष्यद्वक्ता की आवाज नहीं है। हमारे बहुत से धार्मिक विद्वान और विश्वास की व्याख्या करने वाले नहीं जानते हैं कि कहां से आरम्भ करें जब उनका सामना दूसरे विश्वासों के अनुयाईयों से हो जाता है। नये नियम के प्राचीन ठीक थे जो अपने चेलों को घर में प्रशिक्षित करते थे कि जो विरोध करते हैं, उन्हें कैसे समझाएं या उनका समाधान कैसे करें (तीतुस 1ः9) भविष्यद्वाणी का वरदान सबों के लिये है, चाहे वे पुरूष हों या महिला, जवान, बूढ़े या बच्चे हों। जबकि यह वरदान स्वतंत्रता के साथ (मुफ्त में) उपलब्ध है, यह जरूरी है कि हम इसे प्राप्त करने की दिली इच्छा व्यक्त करें और इस वरदान को में मांगें और तब इस वरदान को प्रभावी ढंग से काम में लावें (1कुरिन्थियों14ः1; लूका 11ः13)। नये नियम की इक्लीसिया में साधारणतः दो या तीन भविष्यद्वक्ता बोलते थे, परन्तु प्रत्येक जन जिनमें पुरूष, स्त्रीयां व बच्चे सम्मिलित थे बोल सकते थे, यदि वे पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किये जाते थे (1कुरिन्थियों 14ः29-31)। विशेषकर महिलाओं ने भविष्यद्वाणी करने में सहयोग दिया (1कुरिन्थियों 11ः5)। हमारी वर्तमान इक्लीसिया को अपनी पिछली महिमा से अब और अधिक महिमा प्राप्त करना चाहिये और विश्व के लिये भविष्यद्वाणी की आवाज बन जाना चाहिये (हग्गें 2ः9)। 

चर्च, बुनियादी शिक्षाओं के कुपोषण से पीड़ित हैः बहुत से जन अनुभव करते हैं कि यीशु के साथ व्यक्तिगत अनुभव सबसे महत्वपूर्ण बात हैं, जबकि दूसरे सोचते हैं कि आराधना और मध्यस्थता की प्रार्थना सबसे महत्वपूर्ण हैं जबकि और भी दूसरे जन यह अनुभव करते हैं कि सुसमाचार प्रचार महत्वपूर्ण है। बहुत से जन महसूस करते हैं कि शिष्यता की गहराई तक जाना और व्याख्यात्मक रीति से खुलासा करते हुए शिक्षा देना कुंजी है, जबकि कुछ दूसरे सोचते हैं, कि ये सभी ठीक हैं और हमें इन सभी की आवश्यक्ता है। ये सभी भवन निर्माण की पच्चीकारी कलाओं के भाग हैं जिनसे मिलकर कलीसिया का निर्माण होता है। आधुनिक चर्च में बहुत से विद्वान हैं परन्तु कम हैं जो ‘‘शिक्षा देने का वरदान’’ रखते है। एक वरदान प्राप्त शिक्षक न केवल ज्ञान देता है, परन्तु वह लोगों को पूरी तरह बदल देता है। इक्लीसिया को विश्वासियों को बुनियादी शिक्षाएं सिखाना चाहिये। इसका सिलेबस इब्रानियों 6ः1-2 में दिया गया है, जिनमें से कुछ विषय हैं, मरे हुए कामों से मन फिराना, परमेश्वर पर विश्वास करना, बपतिस्मा की शिक्षा, हाथ रखना, मरे हुओं का जी उठना, और अन्तिम न्याय इत्यादि। इक्लीसिया को भक्तों को इक्लीसिया की भिन्न भिन्न सेवकाई के लिये पूरी तरह सुसज्जित करना चाहिये। एक और क्षेत्र जिसमें इक्लीसिया को अपने लोगों को वास्तव में तैयार करना चाहिये कि वह उन्हें सिखाए कि वे विरोध करने वाले गैरमसीहियों का समाधान कर सकें (तीतुस 1ः9)। सही रीति से तैयार करने का सूचक चिन्ह यह होगा कि उससे इक्लीसिया में उन्नती होगी और उसमें वृद्धि होगी और दूसरी बात यह होगी कि इक्लीसियाओं के मध्य और ज्यादा एकता बढ़ेगी, और तीसरी बात यह होगी कि वह मसीह के समान चरित्र वाले मसीहियों को उत्पन्न करेगी (इफिसियों 4ः12,13)।  

रोटी का टुकड़ा और दाखरस का छोटा घूंट प्रभु की ब्यारी का लक्ष्य या उद्धेश्य नहीं हैः इस्राएल के लिये चालीस वर्षों तक जंगल में से यात्रा करने का मुख्य उद्धेश्य वह समय था जब परमेश्वर ने सत्तर प्राचीनों को भोजन पर मिंत्रित किया। उस समय बहुत गर्जन और आश्चर्य की बातें हुई थी। हम अनुमान नहीं लगा सकते कि परमेश्वर ने भोजन में क्या क्या रखे थे परन्तु वह केवल रोटी का टुकड़ा और दाखरस का छोटा घूंट नहीं था (निर्गमन 24ः9-11)। एक हजार चार सौ वर्षों के बाद यीशु आए और उन्होंने अपने सत्तर चेलों से कहे कि, ‘‘जाओ और जो कुछ शान्ति या मेल के पुरूष के घर में तुम्हारे साम्हने रखा जाए, वही खाओ’’। इसके बाद चिन्ह और चमत्कार हुए (लूका 10ः5-9) इसके बाद प्रारम्भिक इक्लीसिया की सारी गतिविधियां साधारण भोजन करने के आसपास केन्द्रित रहीं। प्रभु यीशु ने स्वंय भी इस भोजन के समय का, कोई न कोई महत्वपूर्ण विषय रखने के लिये पूरा सदुपयोग किया। मार्था के घर में वह उत्तम माभ चुन लेने के विषय पर था, फरीसी के घर में जहां एक पापिनी स्त्री ने आकर संगमरमर के मात्र को तोड़कर सुगंधित द्रव्य को यीशु के पैरों पर उण्डेल दी थी, वह उनकी मृत्यु और गाड़े जाने के लिये था, जक्कई के साथ वह पश्चाताप या मन फिराने के विषय पर था और इसी प्रकार के और विषय। हम सप्ताह के पहले दिन कलीसिया में आराधना करने जाते हैं परन्तु पौलूस त्रोआस में आ गया ताकि वहां उनके साथ रोटी तोड़े, और उन्होंने वहां सभा के दौरान कम से कम दो बार भोजन किया (प्रेरितों के काम 20ः7-12,20)। रविवार के दिन अलग अकेले खाना, विभाजित करने वाला होता है। एक साथ बैठकर भोजन करना, हमारे वर्ग, रंग, जाति में भेदभाव करने वाले समाज को एक बहुत शक्तिशाली संदेश देता है। चर्च की समाप्ति के बाद तुरन्त भागकर घर जाने और भोजन तैयार करने वाली महिलाओं के लिये यह बहुत राहत देनेवाला होगा। बाकी बचा समय शिष्य बनाने के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। साथ बैठकर खाना, इक्लीसिया की वृद्धि और उन्नती करता है (प्रेरितों के काम 2ः46,47)। 

यीशु ने रात के भोजन में भुना हुआ मेम्ना परोसाः संयोग से यीशु ने हमेशा बहुत स्वादिष्ट मांसाहारी भोजन परोसा है, चाहे वह पांच हजार लोगों को मछली से तृप्त करना हो या फसह का भोज जिसमें भुना हुआ मेम्ना था या सुबह का नाश्ता जिसमें समुद्र के किनारे गर्म रोटी और कोयले के अंगारों पर भुनी मछली थी (यूहन्ना 21ः9-12) वे आपके द्वार पर भी खट खटा रहे हैं, और यदि आप द्वार खोलेंगे तो वे चाहेंगे कि आपके कुटुम्ब के साथ भोजन करें (प्रकाशित वाक्य 3ः20)। इसी बीच वे अपने विश्वास योग्य लोगों के लिये एक बड़ा भोज तैयार कर रहे हैं। यह हमारे लिये सुअवसर है कि हम राजमार्गों और गलियों कूचों में जाएं और लोगों को ब्याह के उस बडे़ राजकीय भोज के लिये आमंत्रित करें। (लूका 14ः23; 22ः30; प्रकाशित वाक्य 19ः9; व्यवस्था विवरण 16ः11)। 

पौलूस ने रविवार के दिन यात्रा कियेः बहुत से धार्मिक मसीही रविवार के दिन यात्रा नहीं करते, वे उसका यहूदी सब्त से मिलान करते हैं। सप्ताह का प्रथम दिन यहूदियों के लिये शनिवार की रात से प्रारम्भ हो जाता था। पूरी रात रोटी तोड़ने के बाद पौलूस बड़ी भोर को रविवार के दिन त्रोआस से चल पड़ा और जहाज से अस्सोस की यात्रा किया, पौलूस एक प्रेरित था, परमेश्वर का एक संदेश वाहक, और संदेश वाहक के लिये यह महत्वपूर्ण है कि वह किसी भी दिन यात्रा करे। अन्ताकिया की युवा अन्यजातीय इक्लीसिया एक परिपक्व इक्लीसिया थी क्योंकि उन्होंने पौलूस और सिलास जैसे अनुभवी धर्म सेवकों को वहां भेजा था, जबकि हमारे आधुनिक चर्च मरते दम तक दूध ही पिलाते रहते हैं। उन्हें आप प्रत्येक रविवार के दिन, सिर उठाकर मुंह खोले हुए पुलपिट की ओर देखते पाएंगे, जो दूध पीते रहते हैं। अगले रविवार वे पुनः उसी स्थान पर वापस लौट आते हैं ताकि थोड़ा और उसी तरह का बोतल वाला दूध पी सकें। हां वहां इस सेवा के लिये थोड़ी फीस जरूर लगती है। चर्च उन्हें बढ़ने देने के लिये इन्कार कर देता है, कि वे अपने आपसे अच्छा ठोस भोजन खांए और शिक्षक बन जांए (इब्रानियों 5ः12)। हमारे चर्चों के कब्रस्तान शिशु मसीहियों को दफनाने के स्थान हैं जो कभी भी शिक्षक नहीं बने। रविवार का दिन सबसे उत्तम समय है कि बाहर जांए और उन्हें ऐसी अकाल मृत्यु से बचाएं। 

वृद्धि या बढ़ते जाना यह प्रकृति का नियम हैः एक पक्षी घोंसला बनाता है और बच्चों को जन्म देता है और एक दिन आता है जब बच्चे उड़ जाते है और अपने घोंसले बना लेते हैं इस प्रकार भिन्न भिन्न स्थानों पर नए घोंसले बनते जाते हैं और वृद्धि होती जाती है। यही बात घरेलू इक्लीसियाओं में भी होती है। वहां आपसी संवाद अधिकाई के साथ होता है, जो बहुत जल्द परिपक्वता को ले आता है। और एक दिन आता है कि बच्चे उड़ने के लिये तैयार हो जाते हैं और अपने घोंसले स्वंय बना लेते हैं। कुटुम्ब को बढ़ते जाना चाहिये। गुणात्मक वृृद्धि, प्रकृति बनाना, द्विगुणीकरण, कृन्तकिकारण (Cloning) इत्यादि प्रभु की दुल्हिन के लिये, अनुवांशिक रीति से बढ़ते जाने के लिये, अभिषेक किये गए हैं, परन्तु बजंरपन नहीं।

राजकीय याजकों को राजकीय नियम पूरा करना चाहियेः परमेश्वर ने नूह, इब्राहिम, मूसा, दानिय्येल जैसे मनुष्यों को और दूसरे भविष्यद्वक्ताओं को उभारा व बढ़ाया जिन्होंने देशों के इतिहास को बदल डाला। दुःख की बात है कि पिछले 2000 वर्षों में, कुछ बिरले अपवादों को छोड़कर, अधिकांश अगुवों ने कलीसिया को अन्धियारें युगों में खींचकर ले गए हैं (प्रेरितों के काम 20ः29,30)। अब सभी के लिये पवित्र आत्मा उपलब्ध है कि महाकार्य किये जांए। यदि मसीही अपने घरों को पड़ौसियों के लिये खोल दे तो वे बहुत थोड़े समय में इस देश के इतिहास को बदल सकते हैं (मत्ती 24ः14)। यीशु ने हमें चुनौती दिये हैं, ‘‘क्या तुम नहीं कहते कि कटनी होने में अब भी चार महीने पड़े हैं? देखो, मैं तुमसे कहता हूं.... वे कटनी के लिये पक चुके हैं’’ (यूहन्ना 4ः35)।

इक्लीसिया को आत्मिक नेत्र विशेषज्ञ की आवश्यक्ता हैः बहुत सी कलीसियांए गंभीर रीति से मायोपिआ या अदूरदर्शिता (निकट दृष्टि) की बीमारी से पीड़ित हैं। उनकी दृष्टि आत्म केन्द्रित हैं, और वे अपनी नाम से आगे नहीं देख सकते। तबकि और दूसरे लोगों को मोतिया बिन्द है और उनकी आंखों के लैन्स अपारदर्शी हो गए हैं और वे ज्योति के राज्य और अंधकार के राज्य में अन्तर नहीं मालूूम कर सकते है। उन्हें अपनी दृष्टि सुधरवाने और आत्मिक लैन्स लगाने की आवश्यक्ता है, ‘‘सो तुम जानो कि परमेश्वर के उस उद्धार की कथा अन्यजातियों के पास भेजी गई है, और वे सुनेंगे (प्रेरितों के काम 28ः28)। यीशु कहते हैं, ‘‘तू उठ अपने पावों पर खड़ा हो और अभिप्राय को पूरा कर जो तुझ पर प्रगट किया गया है। मैं तुझे मसीहियों और अन्य जातियों से बचाता रहूंगा, जिनके पास मैं अब तुझे इसलिये भेजता हूं कि तू उनकी आंखे खोले की वे अंधकार से ज्योति की ओर और शैतान के अधिकार से (और उसकी आराधाना करने से) फिरे जिससे उन्हें इस महापाप से क्षमा प्राप्ति हो और वे परमेश्वर के लोग बन जांए’’। (प्रेरितों के काम 26ः16-18)। 

परमेश्वर पिता को धन्यवाद हो कि बहुत से विश्वासी अपने घरों को पड़ौसियों के लिये खोल रहे हैं और राजकीय नियम का पालन कर रहे हैं। ‘‘सारी व्यवस्था इस एक बात में पूरी हो जाती है कि तू अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम रख’’ (याकूब 2ः8; गलतियों 5ः14)।

प्रार्थना सांस लेने के समान है। हम सांस लेने के लिये जीवित नहीं रहते हैं, परन्तु यदि हम सांस न लें तो मर जाएंगे। 
यीशु ने स्वर्गीय राज्य की प्रार्थना किये, ‘‘तेरा राज्य आए’’ केवल एकता में होकर मध्यस्थता की प्रार्थना हमारे शहरों को और देश को पूरी तरह बदल सकती हैं, अंधकार के राज्य से ज्योति के राज्य में। 
एक चित्त होकर, एकता की प्रार्थना का परिणाम भी होता है, जैसा पिन्तेकुस्त के दिन हुआ था, शहर की सारी मण्डलियों को आपसी रूकावटों को तोड़कर और सब मण्डलियों को एकता में आकर प्रार्थना करना चाहिये, तो पूरा शहर चंगाई प्राप्त करेगा। जब पूरा देश एक होकर प्रार्थना करता है, तब देश चंगाई प्राप्त करता है। 
प्रार्थना कोई बदलाव नहीं करती - बदलाव तो परमेश्वर करते हैं - जब हम मिलकर एकता में प्रार्थना करते हैं।

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