भारतीय कलीसिया एवं चर्च के इतिहास की कुछ झलकियां!
भारतीय कलीसिया / चर्च के इतिहास की कुछ झलकियां!
परमेश्वर ने भारत में एक मंच स्थपित कियेः 4000 वर्ष पूर्व इब्राहिम ने कतूरा से विवाह किया और उसकी और भी रखैलियां थीं, जिनके बच्चों को उसने पूर्व की ओर भेज दिया, हम ऐसा विचार कर सकते हैं कि उनमें से कुछ भारत आए (उत्पत्ति 21ः1-6)। ईसा से पूर्व पांचवी शताब्दी में, रानी एस्तर और फारस के राजा अर्तक्षत्र ने भारत से लेकर कूश देश तक राज्य किया। अर्तक्षत्र ने मोर्दकै नाम के एक उत्साही यहूदी को प्रधान मंत्री नियुक्त किया। उसने प्रशासनिक अधिकारियों को भारत भेजा (एस्तर 1ः1; 8ः9,17; 9ः16)। पुरीम के दिन यहूदियों के द्वारा 75000 लोग मारे गए थे।हम नहीं जानते कि भारत में कितने लोग मारे गए थे, परन्तु भारत में असुर लोग काफी भयभीत थे। इस समयावधी में बहुत से सिनेगॉग (यहूदियों के आराधनालय) स्थापित किये गये जो बाद में स्मारकों में बदल दिये गए। रामाह, विष्णु (Ish Nu - ईश नू = नूह), कृष्णा (कूशी भाषा का शब्द जिसका अर्थ है = काला), ब्रम्हा (A-Braham अ-ब्राहम), शिवा (इब्रानी भाषा में इसका अर्थ = सात है और संस्कृत में = शुभ) (2शमूएल 20ः25) या महेश (महा = ऊंचा, ईश Ish = ईश मानव = आदम, जिसके गले में सांप लपटा हुआ, जानवर का चमड़ा पहिने हुए, जिसका जन्म बिना पिता व माता के हुआ, आधा आदमी आधा स्त्री और जिसके दो पुत्रों में से एक की हत्या की गई हो)।
पहिले 95% प्रतिशत आदिवासी कबीलों के लोग भी असुरों के देव शिवा की गढ़ी हुई मूरत की पूजा नहीं करते थे। बाद में वे विष्णु के आर्य अनुयाईयों द्वारा केवल लिंग उपासना के देव बना दिये गए। पहिले आदम ने पाप करके मृत्यु को ले आया परन्तु अन्तिम आदम येशुआ (यीशु) ने जीवन लाया (1कुरिन्थियों 15ः21,22)। आर्य (Aryans = Aarons) मूर्तिपूजक नहीं थे। यह रूचिकर है कि बहुत से भारतीय देवताओं के यहूदी नाम हैं।
स्थानीय भाषाओं में संवाद (बातचीत) करना एक कुंजी हैः केरल (Coconut = नारियल) प्रदेश की कलीसिया/चर्च जीवित रह सकी, हो सकता है इसका कारण यह है कि मसीह पर विश्वास करने वाले यहूदी लोग जिन्होंने पेन्टीकुस्त के दिन अपनी भाषा में सुसमाचा
र सुना था, लौटकर यहां आए होंगे (प्रेरितों के काम 2ः5-12), और उन्होंने वहां के स्थानीय लोगों को उन्हीं की भाषा में सुसंदेश सुनाया होगा। भारत के पश्चिमी समुद्री किनारो पर बहुत से सिनेगॉग थे, परन्तु वहां प्राचीन मसीहियत के कोई चिन्ह नहीं है, शायद यह इसलिये होगा, क्योंकि यहूदी लोग अलग एकांत में रहा करते थे और वे लोगों से संवाद करने में चूक गए। यीशु ने आरामी भाषा में लोगों से बाचतीत की परन्तु धर्मशास्त्र का नया नियम बड़ी रणनीति के तहत, यूनानी भाषा में लिखा गया, जो कि उस समय की अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। स्वर्गीय राज्य के फैलाव के लिये यदि स्थानीय भाषा का उपयोग नकारा गया तो यह घातक हो सकता है।
वह सब जो चमकता दिखाई पड़ता है, सोना नहीं होताः क्नाई थोम्मन, या काना का थोमा जो क्रंगानोर में सन् 345 ईसवी में आया एक सीरिया में रहने वाला व्यापारी थी। वह पैसा कमाने आया था और उसके वंशज, धर्म के नाम में आज भी इसी काम में लगे हुए हैं। वह अब करोड़ों और अरबों का व्यापार बन चुका है। पालायूर - कोडुंगालूर - परूर और समुद्री किनारे के और दूसरे शहर और विमानतल, सोने के आयात और स्मगलिंग के प्रमुख मार्ग है जहां पर सीरियन ईसाई काफी प्रबल हैं। यीशु को अपनी इक्लीसिया बनाने के लिये सोने की और खाड़ी देशों से प्राप्त पैसों की आवश्यक्ता नहीं है। उन्हें तो केवल टूटे और पिसे हृदयों की जरूरत है। (भजन संहिता 51ः17)।
नारियल चर्च को अपने कड़े खोल (नरेटी) को तोड़कर बाहर निकल आना चाहियेः 17 वीं शताब्दी में लन्दन से सी. एम. एस. मिशनरियों के आने के बाद ही, केरला के मसीही क्रियाशील हुए। आर्थोडॉक्स कलीसियाओं से भी बहुत अधिक आशा नहीं की जा सकती है, क्योंकि वे विदेशों के प्रति अपनी निष्ठा रखते हैं। मारथोमा चर्च/कलीसिया पैसों और गुणों की धनी है जो यहूदियों की तरह लन्दन मिशन के प्रभावी धक्के से वजूद में आई है, वे पूरे विश्व में केवल मारथोमा धर्मस्थल बनाने में असफल रहे। बहुत ऊंची समझी जाने वाली मसीही सहभागीताओ भारत के रहने वालों को बपतिस्मा और प्रभु भोज देने से इन्कार किया (तितुस 1ः16)। इस कलीसिया को उस समय वास्तविक बढ़त मिली जब लगभग 60 वर्ष पहिले पेन्टीकोस्टल लोग तूफान की तरह वहां पहुंचे। केरला कन्वेंशन में हजारों लोग इकट्ठे हुए परन्तु वहां उन्होंने केरला के खोए हुए लोगों के लिये प्रार्थना करने की बजाए अपने स्वार्थ को ही केन्द्र में रखकर, खाड़ी देशों में नौकरी और दुल्हन प्राप्त करने के लिये, प्रार्थनाएं कीं, जबकि उत्तर के पड़ौसी मलबार मापिला और दलित लोग जो बहुसंख्यक समुदाय के 80 प्रतिशत है, छोड़ दिये गए।चर्च, श्री नारायना गुरू द्वारा लगभग 150 वर्ष पूर्व प्रारम्भ किये गए सुधार कार्यो को पुनः लागू करने में भी पूरी तरह असफल रहा। सबारीमाला अय्यप्पन का विशाल सम्प्रदाय बेरोकटोक बिना चुनौती के बढ़ता गया। अब उन्हें कोट्टायम को छोड़कर वरकाला पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये जो इझावास दलितों का पवित्र नगर है, और एक दूसरे को समाप्त करने के बदले शैतान के गढ़ों को नाश करना चाहिये। केरला भारत के कुछ ऐसे प्रदेशों में से एक है, जिसे अभी भी घरेलू इक्लीसिया के दर्शन को प्राप्त करना बाकी है। इस प्रकार यह नारियल चर्च फोड़ा जा सकेगा। और लम्बे चौड़े संसाधन, और दासत्व में पड़े मसीही, परमेश्वर के महान अभिप्रायों के लिये स्वतंत्र हो सकेंगे।
प्रोटेस्टेन्ट चर्च/ कलीसिया का हमला नाकामयाब रहाः यद्यपि ब्रितानी, डेनिस और पुर्तगालियों ने 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रोटेस्टेन्ट चेप्लेन पास्टर अपने कर्मचारियों के रूप में लाए थे, परन्तु वे सुसमाचार प्रचार और आत्माओं को बचाने के कार्य में असफल रहे, क्योंकि वे यहां पैसा कमाने आए थे, लोगों को परिवर्तित करने के लिये नहीं। तथापि ब्रितानियों के लिये परमेश्वर का धन्यवाद करना चाहिये। इस्लाम की तलवार ब्रितानी बारूद का सामना नहीं कर सकी, नहीं तो आज भारत एक मुस्लिम देश होता।
दक्षिण भारतीय मलाईदार परत ने पूरी सब्जी खराब कीः सबसे पहिले सन् 1706 में जर्मन के प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी बारथोलमय जीगेनबाल्ग और हेनरी प्ल्थूटसकाऊ आए। भारी क्लेश सहने के बाद उन्होंने पहिला प्रोटेस्टेन्ट चर्च तमिलनाडू के टान्क्वीबार में स्थापित किया। अलग अलग चर्चो के बीच डिनोमिनेशन (Denominationalism) तमिल और तेलगू कलीसियाओं के लिये श्राप है। वहां कहीं कहीं एक ही गांव में बहुत बुरी तरह का जातीय भेदभाव भी है, जहां तमिलनाडू के नादरलोग परिआह लोगों को नीचा करके देखते हैं। इक्लीसिया में कोई यहूदी या अन्यजाति के बीच भेदभाव नही करता, परन्तु दक्षिण भारतीय कलीसियाओं में नीची जाति वाले साथ में नही खा सकते और न ही उनकी बेटियां ऊंची जाति के मसीहियों में विवाह कर सकती हैं। उन्हें चर्च में भी अलग बैठना चाहिये और उन्हें अलग कब्रस्तानों में गाड़ने के लिये और अलग अलग नाम की कलीसियाई गुटों (Denominationalism) के दुष्टात्मा को समाप्त करने के लिये सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि घरों में सहभागिता की जाए और एक साथ बैठकर भोजन किया जाए (लूका 10ः7,8)। तमिल, तेलगू, बंजारे और कन्नड़ लोग अब घरेलू इक्लीसिया के सबसे तेज बढ़ने वाले अभियानों में से एक है।
पूर्वी भारत के बंगाल का शेरः सन् 1792 में विलियम केरी इंग्लैंड से कलकत्ता आए और पूर्वी भारत में कलीसिया स्थापना के गंभीर प्रयास होने लगे। केरी एक आदर्श बहुपक्षीय कार्य करने वाले मिशनरी थे जिन्होंने इस देश के चेहरे को बदल दिया। मछली खाने में रूचि रखने वाले बंगाली पूरी तरह पके और तैयार थे कि मनुष्यों को पकड़ने वाले मछुवारे बनाए जांए परन्तु वे अभी भी इन्तजार कर रहे हैं, किसी जौन नौक्सर का जो उन्हें घरेलू मण्डलियों में अगुवाई करके ले जाए (एक जौन नौक्सर वह व्यक्ति है जो परमेश्वर के लिये उत्साह की आग में जल रहा हो, कि किसी क्षेत्र में जाए) जौन नैक्स की परमेश्वर से यह प्रार्थना की पुकार थी, ‘‘मुझे स्कॉटलैंड दों, नही तो मैं मर जाऊंगा’’!)
इसी बीच पड़ौसी बिहार, मिशनों की कब्रस्तान जैसी स्थिती से दाख की बारी में परिवर्तित होता जा रहा है, जबकि बंगलादेशी लोग पड़ौस में ‘‘जमातों’’ या घरेलू सभाओं की स्थापना करने में काफी आगे हैं। सच्चाई यह है कि बंगला देश ने पिछले पांच वर्षो में 500000 ‘‘गुस्ल’’ डूब के बपतिस्में (Immersions) देखा है। वहां इक्लीसिया समतल (Flat) नमूने की है जहा कोई ढांचागत अधिकार केन्द्रित शक्तियां नहीं है। यहां सुसमाचार एक घर से दूसरे घर में विश्वासियों के द्वारा बहुंचाया जाता है जो विश्वास में बहुत मजबूत हैं, और ईसा (यीशु) के लिये जान देने को भी तैयार है।
उत्तर पूर्व भारतः यहां लगभग 90 प्रतिशत मसीही (अधिकांश केवल नाम धारी) हैं, परन्तु मिशनरियों की सफलता की कहानी सब जानते हैं। यद्यपि वे आसाम, त्रिपुरा, भूटान और सिक्किम को सुसमाचार द्वारा बचाने में असफल रहे, बहुत से कबीले के लोगों ने अभी तक सुसमाचार नहीं सुना है। उन्होंने पश्चिमी आदर्श को अपनाया जिसमें उन्होंने एड्स, मादक दवाओं, संगीत और भवनों और गिटारों, और कबीलों के बीच लड़ाईयों में बहुत पैसा बर्बाद किया। उन्होंने पिछले सार्वजनिक चुनाव में अविस्वनीय रीति से बी.जे.पी. को अपना मत दिया और यह दर्शाया कि मसीही लोग कितने अधिक समझौता करने वाले होते हैं। मिजोरम अकेले ने करीब एक हजार धर्म प्रचारक भेजे है। आबादी और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से आज मिजोरम धर्म प्रचारकों को भेजने वाली विश्व की सबसे बड़ी कलीसिया है। बोडो कबीले में घरेलू इक्लीसिया अभियान आरम्भ हो चुका है।
उत्तर पश्चिम भारतः सन् 1934 में यू. एस. ए. से जौन लॉरी, पंजाब के लुधियाना में आए और भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग को खोला, उसका अधिकांश भाग अब पाकिस्तान में है। एक समय नाव की यात्रा में उन्होंने अपनी पत्नी, अपने मित्रों और सारी सांसारिक धन सम्पत्ति खो दी। हाईड की प्रार्थनाओं द्वारा, परमेश्वर ने एक महान भारतीय संत दित को उठाया, यह एक काला, नाटा विकलांग व्यक्ति था जो पंजाब के गुरदासपुर जिले की अछूत चुरहा समुदाय से था। दित ने अपने जीवन में लगभग 58000 लोगों का बपतिस्मा देखा, इसके लिये उसने एस भी पैसा चर्च से नहीं लिया। पंजाब और हरियाणा प्रदेशों के भारत और पाकिस्तान, दोनों तरफ के भागों में घरेलू इक्लीसियाओं का स्थपना अभियान बड़ी सक्रियता के साथ चल रहा है।
उत्तरीय क्षेत्रः सन् 1885 में, मोरावी लोग आए और उन्होंने हिमालय के लद्दाक और लाहौल स्पीति क्षेत्रों में काम किया। अभाग्यवश वे सामाजिक कार्यक्रमों में लग गए। हार्डी आलू और स्टोक्स सेव बहुत प्रसिद्ध हैं और अर्थ व्यवस्था पर बड़ा प्रभाव रखते हैं, परन्तु बुद्धिष्ट लोगों, शिया मुस्लिमों और अन्यों पर जरा भी आत्मिक प्रभाव डालने में असफल रहे। अभाग्वश स्टोक्स स्वंय एक हिन्दु बन गया। एक बार फिर मण्डलियां हिमालय की तराईयों में और पहाड़ों पर बड़ी सक्रियता के साथ स्थापित की जा रही हैं, जिसमें जम्मू, काशमीर, और साथ साथ तिब्बत सीमा भी शामील है। पड़ौसी नेपाल में तो मानों आग लगी हुई है। इस दशक ने वहां लगभग 700000 लोगों को मसीह में विश्वास के लिये आते देखा है।
मध्य भारतः सन् 1868 में सात जर्मन लूथर मिशनरी, धर्म प्रचारक, करंजियां नामक दूरवर्ती गावं में आए। वे सातों हैजा की महामारी में छः माह के अन्दर मर गए और मंडला शहर में एक सामुहिक कब्र में दफनाए गए। बाद में डोनाल्ड मैक गेवरन, जो कि आधुनिक मिशन के पिता, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के तखतपुर गांव आए। तीसरे दशक के अन्तिम भाग में उन्होंने वहां ‘‘समरूप इकाई सिद्धान्त’’ (Homogeneous unit principle = एक से दिखने/ कार्य करने वाली - इकाई या टुकड़ी का - सिद्धान्त) को विकसित किया, ताकि सतनामियों के मध्य में एक बड़ा अभियान लाया जा सके। उसका बुनियादी अभिप्राय विशेष शैली के लोगों तक, जिनकी एक ही संस्कृति हो पहुंचकर, कलीसिया की उन्न्ति करना था। राज्य सरकार ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून (Anti Conversion Law) पारित कर दिया और विडम्बना यह कि उसे, धार्मिक स्वतंन्त्रता का विधेयक (The Freedom of Religion Bill) कहा गया।
भारतीय सरकार ने तुरन्त ही सारे विदेशी धर्म प्रचारकों को यहां से जाने की आज्ञा दे दी, जो छिपे रूप में बहुत बड़ी आशीष थी। बाद में मैक गेवरान ने इन सिद्धान्तों को वहां सिखाया जो अब प्रसिद्ध है अर्थात पासादेना के वर्ल्ड मिशन के फुलकर स्कूल में। मध्य भारत अब ‘‘घरेलू कलीसिया अभियान’’ का घर है।
लोगों के समूह अभियानः भूतकाल में यह अभियान, ब्राम्हणों नादरों, परिआओं पुलिया और दक्षिण के समुद्री किनारों पर बसे मछुवारों के बीच हो चुका है। और दूसरे अभियानों में उत्तर पश्चिम का चुरहा अभियान उत्तर पूर्व के मिजो और नागा अभियान और अब छत्तीसगढ़ के माल्तोसे और सन्थाली, सतनामी और गादा अभियान और गुजरात के भील, कुकना और वासवा अभियान और महाराष्ट्र का महार अभियान, उत्तर प्रदेश के लालबेगिस, भंगी और बाल्मिकी और चमारों के भी घरेलू कलीसिया अभियान हैं।
नियंत्रण करने की मनोवृत्ति, अभियान को समाप्त कर देती हैः इनमें से बहुत से अभियान रूक गए क्योंकि दोहरी संस्कृति के मिशनरियों व धर्म सेवकों ने, स्थानीय अगुवों के विकास को हतोत्साहित किया, और अभियान पर नियंत्रण करने की कोशिश की। आयातीत अर्थात बाहर के देशो से लाए गए अगुवे, आयातीत भवन और आयातीत साजिशों ने, तेजी से फैलते जा रहे सुसमाचार को, धीमा कर दिया। नियंत्रण करने की मनोवृत्ति के पीछे चाहे कितनी भी अच्छी मन्शा क्यों न हो, तौभी यह तेजी से चल रहे सुसमाचार अभियानों को रोकने का शर्तिया नुस्खा है (यूहन्ना 3ः8)।
300 वर्षो में 100,000 कलीसियांएः बहुत गलतियों के बावजूद, कलीसिया बढ़ती गई। हम परमेश्वर का धन्यवाद करते हैं उन धर्म प्रचारकों व मिशनरियों के लिये जो यहां आए, जिनमें से बहुत से यही पर दफनाए गए। पिछले 300 वर्षों से उनके त्याग के कारण पूरे भारत वर्ष में लगभग 100000 बड़ी और छोटी मण्डलियां स्थापित की गई हैं, परन्तु इनमें से अधिकांश दक्षिण में है। इसका यह अर्थ नही है कि 100000 गांव भी सुसमाचार के प्रभाव में आ चुके हैं, क्योंकि बहुत से गांवों में एक से अधिक कलीसियांए हैं और इन कलीसियाओं की ज्यादा संख्या शहरों में हैं। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नेहरू सरकार ने विदेशी धर्म प्रचारकों व मिशनरियों पर रोक लगा दिया। उस समय कलीसिया बड़ी भंयकर दुर्गति की स्थिति में पहुंच गई थी, क्योंकि बहुत से भारतीयों ने, विस्तृत फैली हुई कलीसियाई सम्पत्ति को हथियाने की कोशिश की और धार्मिक तंत्र व्यवस्था (Hierarchical) में जो पद विदेशी मिशनरी खाली कर गए थे, उन्हें पाने के लिये छल कपट करने लगे और कोर्ट कचहरी रूपये एंव संसाधनों की आपराधिक बर्बाद की।
दुल्हिन (इक्लीसिया) ने बढ़ना और पृथ्वी को भरना प्रारम्भ कर दियाः 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पेन्टीकॉस्टल लोग अन्य अन्य भाषाओं में बातें करते हुए पूरे विश्व पर छा गए। बाद में यह चिन्हों और चमत्कारों के साथ करिश्मेंटिक अभियान बन गया। 80 के दशकमें मध्य में यह मध्यस्थता की प्रार्थनाओं का अभिमान बन गया। 1993 में, ‘‘ए.डी. 2000 अभिमान’’ की कोशिशों के द्वादा लाखों लोगों ने 10/40 खिड़की के देशों के लिये प्रार्थना किये। उसी समय से शिष्य बनाने और बढ़ती संख्या में मण्डलियों की स्थापना के महान आदेशीय अभियान ने गति पकड़ लिया।
भारत बैंड बाजे की गाड़ी (Band Wagon) पर सवारः आज भारत में, हमारे पास 300,000 कलीसिया स्थापक/ रोपक हैं, 50,000 मिली जुली संस्कृति के धर्मप्रचारक और 200 मिशन है। कम से कम 1000 घरेलू मण्डलियां प्रति सप्ताह स्थापित की जा रही हैं। यद्यपि यह अभियान अभी बाल्यावस्था में है, तथापि यह बहुत से प्रदेशों में झाड़ी की आग की तरह फैल रहा है, जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और उत्तरी पश्चिमी राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल तथा उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, बिहार, तमिल नाड, कर्नाटक, यहां तक कि दूरवर्ती जम्मू, अरूणाचल में और अब आसाम में भी। अब यह बड़े शहरों जैसे मुबंई, चैन्नई, दिल्ली, लुधियाना, वाराणसी, भोपाल, नागपुर, बैंगलोर और हैद्राबाद में भी फैल रहा है। घरेलू इक्लीसिया अभियान बहुत से जन समूहों में भी प्रारम्भ हो चुका है।
वृहत कलीसिया का तथ्यः बड़े अनुष्ठान/समारोह, प्रधान मानव मस्तिष्क के तनाव की उपज हैं। बड़े अनुष्ठान या समारोह उस प्रकार एक देह जैसा जीवन नहीं दे सकते जैसे छोदे हैं। वे पुनः पैदा या प्रजनन नहीं कर सकते और जो बढ़त है व ज्यादातर स्थानान्तरण के कारण है। पड़ौस में जो चर्च हैं वे गूंगे गवाह हैं। यद्यपि वे एक छत के नीचे जमा होते हैं, परन्तु सच्चाई यह है, कि सिनेमा थिएटर की तरह, लोगों के झुण्ड आते हैं और जाते हैं, वे कभी किसी से मिलते तक नहीं। यद्यपि दावा किया जाता है कि बहुत बड़ी पूंजी मिशन कार्य हेतु दी जा रही है, परन्तु प्रति व्यक्ति दान रसातल की तरह नीचा है, क्योंकि बहुत पूंजी, साधन रहित आन्तरिक योजनाएं खींच लेती है। तथापि कुछ लोग छोटे छोटे झुण्डों की कलीसियाओं द्वारा बाहर पहुंच बना रहे हैं, इन्हें घरेलू इक्लीसियाओं की तरह स्वतंत्रता नहीं है, परन्तु तौभी यह सही दिशा में एक कदम है। इलाहबाद एग्रीकल्चर मूनिवर्सिटी अहाता प्रति रविवार एक इक्लीसया के रूप में बदल जाती है, जहां लगभग 30,000 की भीड़ चंगाई और छुटकारा प्राप्त करने के लिये जमा होती है। जब तक नये विश्वासियों को शिष्य बनाने के लिये कदम नहीं उठाए जाते इस तहर बड़ी भीड़ के रूप में जमा होना एक अस्थाई तथ्य होगा। दस वर्ष पहिले जिन चर्चों में 300000 जन भाग लेते थे, अब वे नहीं रहे, जैसा कि व्यूनस आयर्स में किसी समय सिनेमा - चर्च ‘‘ओन्डास डेल लूजी आमोर‘‘ हुआ करता था। फिर भी जब सुरक्षा कोई समस्या नहीं है तो विश्वासियों को समय समय पर एक दूसरे से मिलते रहना चाहिये, यह देखने के लिये कि परमेश्वर दूसरी जगहों में क्या क्या कर रहे हैं।
पांच तरह की सेवकाई करने वाली मकड़ियां और इक्लीसिया का महाजालः इक्लीसिया स्थापित करने के बहुत से अभिमानों की अगुवाई डॉक्टरों, इन्जीनियरों, फौजियों और अन्य काम करने वालों के द्वारा की जा रही है, और धर्म गुरूओं द्वारा बहुत कम। कभी कभी यह महाजाल समारोह मनाने के लिये जमा होता है। उनमें से अधिकांश विभिन्न ‘‘क्षेत्रो के जाल हैं’’ जिनसे पांच तरह की सेवकाई करने वाली मकड़ियां मिलती रहती हैं, जो उन्हें तैयार रखते हैं कि सब भटके हुए गुबरेला कीड़ों को फकड़ लें। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, आन्ध्र प्रदेश, और बहुत से दूसरे प्रदेश बहुत तेजी से जालों की संख्या बढ़ते जा रहे हैं। प्रत्येक जाल के पास हजारों बपतिस्मा प्राप्त विश्वासी होते हैं। घरेलू कलीसियाओं का विश्वस्तरीय जाल बहुत से महाद्वीपों और देशों से जुड़ा हुआ है जैसे अफ़्रीका, केनेडा, यू. एस. ए. दक्षिण आफ़्रीका, नार्वे स्वीट्ज़रलैंड, न्यूजीलैंड और बहुत से विकासशील देश भी।
चुनाव घोषणा पत्रः राजनीति, शक्ति के इर्द गिर्द होती है, न्याय संगत शक्ति परन्तु यह वह नहीं है जो धर्म निरपेक्ष या ईश्वर रहित राजनीति में होता है। पिछले 2003 में, राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों ने बिजली, पानी, सड़क का नारा दिया था और भारत के कुछ प्रदेशों में सूपड़ा साफ जैसी विजय प्राप्त की। उन्होंने तुरन्त देश में अपना साम्प्रदायिक विचारधारा वाला कार्यक्रम आरम्भ कर दिया। अपनी विजय के विषय में आश्वस्त उन्होंने तुरन्त संघीय चुनाव भी करा दिये। घटनाओं को बदलने देख मसीहियों ने राष्ट्रीय प्रार्थना जाल बनाया और लाखों, मध्यस्थता की प्रार्थना करने वालों को लामबंद कर दिया कि वे प्रभु परमेश्वर की दोहाई दें। परमेश्वर ने बड़ी विश्वास योग्यता के साथ उनकी प्रार्थनाओं का जवाब दिया और साम्प्रदायिक पार्टिया पूरी तरह उखाड़ दी गई। हारने वालों को पता नहीं चल पाया कि वे कैसे जीत गए। उन्होंने इसे कारक ‘‘एक्स’’ (X) करार दिया, परन्तु हम जानते हैं कि वह कारक प्रार्थना थी। मध्यस्थता की प्रार्थना करने वालों की संयुक्त प्रार्थना ने उस समय की सरकार को बदल दिया। हम जानते है कि उपवास, पश्चाताप और मध्यस्थता की प्रार्थना के द्वारा हम न्याय संगत राजनीतिक शक्ति को राष्ट्र पर शासन करने के लिये ला सकते है (2इतिहास 7ः14)।
प्रार्थनाओं के द्वारा राष्ट्रों पर शासन करेंः 2004 के अमेरीकी चुनाव के दौरान 250,000 विलासी (Gays) गर्भपात करने वालों (Abortionist) और उदारवादी (Librals) लोगों ने एक विरोध रैली निकाली, वे अपनी जांघिया याने चड्डी दिखा रहे थे, जिन पर, जार्ज डब्लू. बुश के मसीही समर्थन में दृढ़ रहने के विषय पर अश्लील शब्द लिखे हुए थे। भारत में लगभग दस लाख मसीहियों के जाल ने एक साथ मिलकर परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वे सही व्यक्ति को चुनें। दूसरे देशों में भी लोगों ने प्रार्थना किये, परन्तु हम महसूस करते हैं, कि हमारे दस लाख प्रार्थना करने वालों ने तराजू को झुका दिया और व्हाईट हाऊस में सही व्यक्ति को पहुंचा दिया। भारत में घरेलू इक्लीसियाओं को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे छः सौ संसद सदस्यों में से प्रत्येक के लिये प्रार्थना करें और उनके लिये भी जो हम पर शासन और अधिकार रखते हैं। हम सरकार को प्रार्थनाओं में स्नान कराके राष्ट्र पर शासन कर सकते हैं। अब हम इसके प्रभाव को देख सकते हैं। क्योंकि धर्म परिवर्तन विरोधी कानून रद्द हो गया है (Repealed)। शिक्षा को साम्प्रदायिक विचार धारा से स्वतंत्र कर दिया गया, ऊंची जगहों पर भृष्टाचार का पर्दाफाश किया जा रहा है, न्यायालयों में अब न्याय अधिकाई के साथ प्राप्त हो रहा है और पत्रकारिता और सरकार गरीबों की दुर्दशा पर अधिक ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं (1तीमुथियुस 2ः1-4)।
परम्परागत चर्च की कलीसियाएं पछड़ गई/पिछली सीटों पर आ गईः एक अरब लोगों में से, भारत में मसीहियों की कुल आबादी लगभग 680 लाख होगी, (जन 2005 न्यूयार्क टाईम्स)। अभी कुछ समय पहिले तक, सबसे बड़ा चर्च रोमन केथलिकों का था, परन्तु अब वे नीचे की और भी अधिक हानि में दिखाई दे रही हैं विशेष कर युवाओं के बीच में (26%)। प्रोटेस्टेन्ट चर्च/कलीसियाएं अब और भी अधिक हानि में दिखाई दे रही हैं विशेष कर युवाओं की बीच में (28%)। जबकि छोटी छोटी घरेलू इक्लीसियाएं अधिकाई के साथ बढ़ती जा रही है, और उन्होंने परम्परागत चर्चों को पीछे छोड़ दिया है (53%)। कुल प्रतिशत तो 100% प्रतिशत से भी अधिक होगा, क्योंकि बहुत से लोग मिश्रित (दोनों ही) परम्पराओं में भाग लेते हैं। तौ भी हमें ध्यान देना चाहिये कि केवल 2-3 % प्रतिशत मसीही ही महान आदेश मसीही है। तौभी इस सीमित संख्या के सक्रिय मसीहियों के साथ यदि प्रभु की इच्छा हुई, तो इस दशक के अन्त तक भारत के सभी 600,000 गांवों में घरेलू इक्लीसियाएं स्थापित हो जाएंगी।
यीशु भक्तों से यीशु शिष्यः भारत में लोगों के लगभग 3000 सजातीय जन समूह हैं। ‘‘सजातीय (Endagamous) का अर्थ है, वे जातियां जिनमें आपस में विवाह होते हैं। 165 बड़े समूह हैं, प्रत्येक की जनसंख्या 10 लाख या उससे अधिक होगी जिनसे बहुत कम समय में मिला जा सकता है, बशर्ते समय सीमा बांध दी गई हो, लक्ष्य निर्धारित रणनीति हो, और एक दूसरे के साथ मिलकर काम करने की दिली इच्छा हो। पिछले 300 वर्षों में केवल 200 जन समूहों और 100000 से भी कम गांवों में पहुंचा जा सका है। परन्तु केवल पिछले 10 वर्षों में, ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि 600 और जन समूहों को और 100,000 दूसरें गांवों को भी उनमें जोड़ा जा चुका है। 185% प्रतिशत मसीही 33% जन समूहों में से आए हैं, जबकि 98% प्रतिशत मसीही, 104 जन समूहों में से आए हैं। मसीह का देहधारण देखना ही इसका रहस्य है, केवल व्यक्तिगत रीति से नहीं परन्तु 3000 जन समूहों के प्रत्येक समूह में भी, उनके अपने रहने के स्थानों/ घरों द्वारा या घरानों के बढ़ने के द्वारा। प्रत्येक इक्लीसिया की नरसिंगे की पुकार, यह होना चाहिये, ‘‘आओ हम प्रत्येक समुदाय में से यीशु भक्तों को सज्जित करें, और उन्हें शिष्य बनाने वाले ‘‘यीशु शिष्य’’ बना दें।’’
प्रभु यीशु राजाओं के राजा हैं और हमारे महायाजक भी हैं (प्रकाशित वाक्य 19ः16; इब्रानियों 2ः17)
हमको याजक और राजा बनाने के लिये राजा (यीशु) मर गए (प्रकाशित वाक्य 5ः9,10)
स्वर्गीय राज्य के भेदों को हम पर, प्रगट किया गया है (इफिसियों 3ः5,6; कुलुस्सियों 1ः26-28)
रजाओं के रूप में, हमें सबसे पहिले उसके राज्य की खोज करना चाहिये और यीशु के प्रभुत्व वा राजाधिकार के अधीन रहकर जीवन में राज्य करना चाहिये। (मत्ती 6ः33; रोमियों 5ः17)
नये नियम की इक्लीसिया, याजकों और राजाओं की सभा है, जो परमेश्वर का असीम धन हैं, जो उनकी स्तूति प्रशंशा की उद्घोषणा करने के लिये चुने गए हैं, केवल रविवार के दिन नहीं, परन्तु प्रति दिन और सब जगहों पर (1पतरस 2ः9)।
इम इक्लीसिया हैं, आदर्श नमूना, मध्यस्थ, और एक संदेश हैं कि यीशु ही शुभ समाचार हैं।
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