बड़े भोज का दृष्टान्त

बड़े भोज का दृष्टान्त

सन्दर्भ :- लूका 14ः15-24 - ‘‘उसके साथ भोजन करने वालों में से एक ने ये बातें सुनकर उस से कहा, धन्य है वह, जो परमेश्वर के राज्य में रोटी खाएगा। उस ने उस से कहा, किसी मनुष्य ने बड़ी जेवनार की और बहुतों को बुलाया। जब भोजन तैयार हो गया, तो उस ने अपने दास के हाथ नेवताहारियों को कहला भेजा, कि आओ; अब भोजन तैयार है। पर वे सब के सब क्षमा मांगने लगे, पहिले ने उस से कहा, मैं ने खेत मोल लिया है; और अवश्य है कि उसे देखूं : मैं तुझसे बिनती करता हूं, मुझे क्षमा कर दे। दूसरे ने कहा, मैनें पांच जोड़े बैल मोल लिए हैं; और उन्हें परखने जाता हूं : मैं तुझ से बिनती करता हूं, मुझे क्षमा कर दे। एक और ने कहा; मैंने ब्याह किया है, इसलिये मैं नहीं आ सकता। उस दास ने आकर अपने स्वामी को ये बातें कह सुनाई, तब घर के स्वामी ने क्रोध में आकर अपने दास से कहा, नगर के बजारों और गलियों में तुरन्त जाकर कंगालों, टुण्डों, लंगड़ों और अन्धों को यहां ले आओ। दास ने फिर कहा; हे स्वामी, जैसे तू ने कहा था, वैसे ही किया गया है; और फिर भी जगह है। स्वामी ने दास से कहा, सड़को पर और बाड़ो की ओर जाकर लोगों को बरबस ले ही आ ताकि मेरा घर भर जाए। क्योंकि मैं तुम से कहता हूं, कि उन नेवते हुओं में से कोई मेरी जेवनार को न चखेगा।’’

प्रस्तावना एवं पृष्ठभूमि :- एक सब्त के दिन प्रभु यीशु मसीह फरीसियों के सरदारों में से किसी के घर भोजन करने गया था। (लूका 14ः1) वहां किसी व्यक्ति ने प्रभु यीशु मसीह की नेवताहारियों के संबंध में कही गई बातें सुनने के पश्चात् टिप्पणा की कि, ‘‘ धन्य है वह जो परमेश्वर के राज्य में रोटी खाएगा।’’ उसकी इस टिप्पणी के पश्चात् प्रभु यीशु मसीह ने उसे बड़े भोज का दृष्टान्त सुनाया।

इस दृष्टान्त के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने यह स्पष्ट किया कि परमेश्वर ने मनुष्य के उद्धार के लिए सब कुछ किया है। अब उसका आमंत्रण सबके लिए है। यह आमंत्रण, नम्रता पूर्वक किया गया निवेदन ही नहीं किन्तु उसका आदेश है। उसकी अपेक्षा है कि कोई भी मनुष्य उसकी तैयारी को न ही अज्ञानतावश, न ही बहाने बनाकर और न ही ‘बाद’ के लिए टालकर तुच्छ ठहराए।

 प्रभु यीशु मसीह ने यह भी प्रगट किया कि जो मनुष्य इस संसार में परमेश्वर के आमंत्रण को ठुकराएगा या किसी भी कारण से उसकी अवहेलना करेगा, उसे परमेश्वर भी अपने राज्य में स्थान नहीं देगा।

विषय वस्तु :- दृष्टान्त के प्रारंभ में तो प्रभु यीशु मसीह ने मेजबान के रूप में स्वयं को प्रगट न करके किसी व्यक्ति की बात कही किन्तु अन्त में उसने ‘मेरी जेवनार’ कहकर स्वयं को मेजबान के रूप प्रगट किया।

यहां मेजबान ने बड़े भोज का आयोजन किया। सभी तैयारी के पश्चात् उसने अपने दास को भेजकर नेवताहारियों को बुलाया। इन सभी आमंत्रितों ने भोज में उपस्थित न होने का कोई न कोई बहाना बनाकर मेजबान के आमंत्रण को ठुकरा दिया। पहले ने कहा कि उसने खेत मोल लिया है और उसे उसकी जांच करना है। दूसरे ने कहा कि उसने पांच जोड़े बैल खरीदे हैं जिन्हें परखना आवश्यक है। तीसरे ने कहा कि उसने ब्याह किया है अतः उसका आना संभव नहीं होगा। इस प्रकार सब ने अपनी असमर्थता प्रगट कर दास से विनती की कि उनकी ओर से वह अपने स्वामी से क्षमा मांग ले।

दास ने आकर अपने स्वामी को ये बातें सुनायीं। तब स्वामी क्रोधित हुआ और उसने अपने दास को आज्ञा दी कि बाजार और गलियों में जाकर तुरन्त कंगालों, टुण्डों, लंगड़ों और अन्धों को यहां ले आओ। दास ने वैसा ही किया फिर भी और जगह बच गई। तब स्वामी ने दास को दूसरी बार पुनः भेजा कि और भी लोगों को बुला लाए जिससे उसका घर भर जाए और फिर यदि कोई आमंत्रित बाद को पछताकर आना भी चाहे तो भी वह घर में प्रवेश न कर पाए।

व्याख्या :- यहां सबसे पहले उस मनुष्य के कथन पर टिप्पणी आवश्यक है जिसने कहा कि,  ‘‘धन्य है वह जो परमेश्वर के राज्य में रोटी खाएगा।’’ प्रभु यीशु मसीह ने उसके इस कथन के बाद ही उसे यह दृष्टान्त सुनाया।

प्रभु यीशु मसीह चाहता था कि लोग जाने कि मात्र होठों से उसकी जय पुकारने, हालेलूय्याह के नारे लगाने, जय मसीह की अथवा प्रभु की स्तुती हो अभिवादन के द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। उसको प्रसन्न करने के लिए तथा उसके राज्य में प्रवेश करने के लिए उसे अपने जीवन में सर्व प्रमुख स्थान देना है और उसके आमंत्रण को जो प्रभु यीशु मसीह के द्वारा सबको दिया गया है, स्वीकार करना है। अपने जीवनों को उसकी आराधना, स्तुति और गवाही के अनुरूप बनाना है।

जिस प्रकार इस दृष्टान्त में स्वामी ने भोज की पूर्ण तैयारी की। लोगों को काफी समय पहले भोज हेतु आमंत्रण भेजा जिससे लोग नियत समय पर भोज में शामिल हो सकें। भोज के दिन सभी तैयारी के पश्चात् उसने अपने दास को नेवताहारियों के पास पुनः भेजकर उन्हें अन्तिम बार सूचित किया। ठीक उसी प्रकार परमेश्वर ने अपनी चुनी हुई प्रजा इस्त्राएल को बचाने की योजना बनायी। उन्हें इस बात की पूर्ण जानकारी दी। यहां स्वामी ने केवल एक दास को भेजा किन्तु परमेश्वर ने अपने विभिन्न दासों, नबियों एवं भविष्यवक्ताओं के द्वारा अनेकों बार इस्त्राएलियों को अपने राज्य में शामिल होने का आमंत्रण दिया। अन्त में परमेश्वर ने उन्हें बचाने के लिये अपने एकमात्र, निष्कलंक और निर्दोष बेटे प्रभु यीशु मसीह को ही बलिदान कर दिया और मनुष्य के उद्धार की योजना पूरी की। परमेश्वर ने अपने ओर से तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने अपने सर्वोत्तम दास प्रभु यीशु मसीह के द्वारा सभी मनुष्यों को स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने के लिए अन्तिम बार आमंत्रण दिया है।

आगे इस दृष्टान्त में प्रभु यीशु मसीह ने यह प्रगट किया कि परमेश्वर के महान आमंत्रण को ठुकराने के लिए मनुष्य किस प्रकार के झूठे एवं हास्यास्पद बहाने बनाता है।

पहले व्यक्ति ने भोज में उपस्थित नहीं होने का यह कारण बताया कि उसने खेत मोल लिया है और उसे देखना आवश्यक है।

प्रश्न उठता है कि क्या कोई व्यक्ति जमीन या वस्तु पहले देख परखकर लेता है या खरीदने के बाद उसे देखता है ? यदि उसने किसी कारणवश खेत पहले न भी देखा हो तो अब तो वह खरीद ही चुका था। उसका खेत कहीं भागा तो जा नहीं रहा था। केवल कुछ समय के लिए स्वामी के भोज में ही तो उसे शामिल होना था, खेत तो वह दूसरे किसी भी दिन देख सकता था। बात स्पष्ट थी कि उसे भोज में शामिल होने की इच्छा ही नहीं थी। स्वामी के आमंत्रण को ठुकराकर और उसका निरादर करके भी उसे हृदय में कोई भी गलती का अहसास नहीं था। वह मात्र औपचारिकतावश क्षमा मांग रहा था। क्षमा मिले या न मिले, इससे उसे कोई फर्क नहीं था। संपत्ति के मोह के कारण उसने स्वामी के आमंत्रण को ठुकरा दिया। संपत्ति उसके जीवन में प्राथमिक थी।

     दूसरे व्यक्ति ने भोज में शामिल न होने का यह कारण बताया उसने पांच जोड़े बैल मोल लिये हैं और उन्हें परखना आवश्यक है। यहां भी प्रश्न वही है क्या वह बैलों कों बाद में नहीं परख सकता था ? क्या उसे आवश्यक नहीं था कि स्वामी के पूर्व निर्धारित भोज में शामिल हो और स्वामी के प्रति अपना आदर, सद्भाव एवं कृतज्ञता प्रगट करे। इस व्यक्ति के लिए व्यवसाय प्रमुख था। वह शायद स्वामी के घर में कार्य करने के अलावा "व्यवसाय ’’ करता होगा और उससे जो लाभ उसे होता होगा वह उसके मोह में इस कदर फंस चुका था कि उसे स्वामी की परवाह ही नहीं थी। स्वामी के भोज में उपस्थित न होकर स्वामी का निरादर तो कर रहा था किन्तु उसका उसे कोई भी अफसोस नहीं था। उसने भी मात्र औपचारिकतावश क्षमा मांगकर यह समझ लिया कि उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया।

तीसरे व्यक्ति का बहाना और भी अजीबो- गरीब जान पड़ता है। उसने कहा कि मैंने शादी की है अतः आना संभव नहीं। क्या यदि उस व्यक्ति की वास्तव में स्वामी के भोज में शामिल होने की इच्छा होती तो वह अपनी पत्नी को साथ लेकर वहां नही उपस्थित हो सकता था? क्या उसका स्वामी उसके इस व्यवहार से और भी प्रसन्न नहीं होता ? भोज में शामिल होना तो कुछ ही देर की बात थी परन्तु उसने परिवार के कारण उतना भी समय जिस पर वास्तव में स्वामी का अधिकार बनता था, नहीं देकर उसे तुच्छ जाना।

परमेश्वर तो चाहता है कि हम उससे अपने सारे मन, सारी बुद्धि और सारे प्राण और सारी शक्ति के साथ प्रेम रखें। (मरकुस 12ः33 के अनुसार) परन्तु हम भी इन्हीं लोगों के समान अजीबो गरीब बहाने बना बनाकर उसे तुच्छ जानते हैं। उसका निरादर करते हैं, उसके निमंत्रण को ठुकरातें हैं तथा उसकी आज्ञाओं की जानबूझकर अवहेलना करते हैं। धन का मोह, व्यवसाय की व्यस्तता एवं पारिवारिक जिम्मेंदारियां कहीं हमें परमेश्वर से दूर तो नहीं करती ? कहीं हम भी परमेश्वर से बढ़कर इन बातों को तो प्रमुखता नहीं देते हैं ?

प्रायः लोग कलीसियाई जिम्मेदारियों को इन्हीं बहानों का हवाला देकर पूरा करने से मुकरते हैं। यह सुनना बड़ी आम बात है कि एक रविवार ही तो मिलता है जिसमें काम काज से छुट्टी पाकर पारिवारिक जिम्मेदारियां पूर्ण करने का समय मिलता है। ऐसे में आराधना भवन में उपस्थित होना असंभव है। प्रायः लोगों के लिए रविवार का दिन आराम से परिवार के साथ बिताने के लिए, या पिकनिक जाने के लिए भी सर्वथा उपयुक्त होता है। इसी कारण वे आराधना में अनुपस्थित हो जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि परमेश्वर उनकी ‘मजबूरी’ समझे वे इसे अपनी गलती मानते ही नहीं कि ‘पिता’ के ठहराये हुए दिन में हमें पिता के भवन में उपस्थित होना अनिवार्य है। यह उसका निमंत्रण है कि सप्ताह के पहले दिन हम शिक्षा पाने, संगति रखने और प्रार्थना करने लिए हम उसके भवन में उपस्थित हों। (प्रेरितों के काम 2ः42 के अनुसार) कुछ लोग पैसे कमाने की धुन में तथा व्यवसायिक जिम्मेदारियों में इस कदर उलझ जाते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनके हृदय में न ही कोई भय रह जाता है न ही कोई आदर। ये कहना अधिक उचित होगा कि उसके जीवन में परमेश्वर के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता है।

आगे वर्णन है स्वामी के क्रोध का। लोगों ने तो स्वामी का आमंत्रण ठुकराना बड़ी हल्की बात समझी थी। उन्हें स्वामी के क्रोध का उस क्षण अहसास भी नहीं हुआ होगा। उनके क्रियाकलाप में स्वामी के क्रोध से कोई अन्तर नहीं पड़ा क्योंकि उन्होंने उसके न्याय एवं अनन्त दण्ड को अपने संसारिक जीवन में लापरवाही से जानबूझकर नजरअन्दाज कर दिया था। सम्मानित आमंत्रितों के द्वारा भोज में उपस्थित होने की असमर्थता प्रगट करने के द्वारा प्रभु यीशु मसीह ने प्रमुख रूप से इस्त्रायलियों तथा उनके धार्मिक अगुओं की ओर इशारा किया। इन्हें परमेश्वर ने चुना था। इनसे परमेश्वर ने वाचा बांधी थी कि वे उसकी प्रजा होगें और वह उनका परमेश्वर होगा। इस्त्रायलियों ने इस वाचा पर अपनी सहमति प्रगट की थी किन्तु फिर उन्होंने यह वाचा अपने स्वार्थां के कारण तोड़ दी। परमेश्वर ने उद्धार की योजना पूर्ण की। उसने अपने पुत्र प्रभु यीशु मसीह को दास के रूप में इस संसार में भेज दिया। परमेश्वर चाहता था कि प्रभु यीशु मसीह के द्वारा वह अन्तिम बार इस्त्रायलियों को स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने के लिए निमंत्रण दे। उसके इस अन्तिम आज्ञा को भी इस्त्रायलियों ने तुच्छ जानकर ठुकरा दिया।

उस समय में यह परम्परा थी कि भोज के आयोजन के काफी समय पूर्व नेवताहारियों को नेवते की सूचना दी जाती थी और फिर भोज के दिन सभी तैयारी के पश्चात पुनः उन्हें अन्तिम सूचना भेजी जाती थी। इस आमंत्रण को ठुकराना मेजबान की बेइज्जती करना माना जाता था और समाजिक रूप से भी आमंत्रण को ठुकराने वाले लोगों को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था। अतः निमंत्रण को ठुकराना कोई हल्की बात नहीं थी किन्तु यह जान बूझकर की जाने वाली गलती थी।

इस्त्राएली धार्मिक अगुवे प्रगट रूप में तो बड़ी ही सतर्कता से धार्मिक परम्पराएं एवं रीति-रिवाज पूरे करते थे किन्तु जिस आदर के योग्य केवल परमेश्वर ही था उस आदर के योग्य वे स्वयं को ही समझने लगे थे। उनके जीवन एवं हृदय में परमेश्वर का स्थान पूर्ण रूप से इन्हीं परम्पराओं ने ले लिया था। उन्होंने परमेश्वर के आमंत्रण को जान बूझकर सभी प्रमाणों के बावजूद ठुकराया। उन्हें परमेश्वर का आपमान करने का कोई पश्चाताप नहीं था। उनके हृदय की कठोरता के कारण परमेश्वर ने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा यह खुला निमंत्रण सम्पूर्ण मानव जाति के लिए दिया। यहां कंगालों, टुण्डों, लंगड़ों और अंन्धो से तात्पर्य यह है कि संसार के सभी मनुष्यों के लिए आशा है। चाहे वे कितनी भी पतित अवस्था में क्यों न हों परमेश्वर उन्हें स्वीकार करने को तैयार है। जो परमेश्वर के आमंत्रण को ठुकराते हैं उन्हें परमेश्वर भी अस्वीकार करेगा। वह उनके बदले यह आमंत्रण किसी दूसरे को देगा जो उसके आमंत्रण को स्वीकार कर उसके राज्य में शामिल हो सकें। जैसा कि लिखा है कि ‘‘हे भाइयों, अपने बुलाए जाने को तो सोचो, कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान और न बहुत सामर्थी और न बहुत कुलीन बुलाए गये। परन्तु परमेश्वर ने जगत के मुर्खो को चुन लिया है, कि ज्ञानवालों को लज्जित करे, और परमेश्वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे। और परमेश्वर ने जगत के नीचों और तुच्छों को, बरन जो हैं भी नहीं उनको भी चुन लिया, कि उन्हें जो हैं, व्यर्थ ठहराए। ताकि कोई प्राणी परमेश्वर के सामने घमण्ड न करने पाए।’’ (1 कुरि. 1ः26-29)

व्यवहारिक पक्ष एवं आत्मिक शिक्षा : 

  • आज भी परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य को प्रभु यीशु मसीह के नाम से प्रचार द्वारा विभिन्न माध्यमों से अपने राज्य में शामिल होने का आमंत्रण देता है। यह आमंत्रण ऐसा नहीं कि इसे अपनी इच्छानुसार स्वीकार करें या ठुकरा दें। किन्तु, यह परमेश्वर का आदेश है जिसे हर एक मनुष्य को अपने ही अनन्त लाभ के लिए स्वीकार करना है।
  • विभिन्न बहानों एवं जिम्मेदारियों का हवाला देकर परमेश्वर के आमंत्रण को ठुकराना भी परमेश्वर के क्रोध को बुलावा देना है।
  • हमें परमेश्वर को अपने जीवनों में प्रथम, सर्वोच्च एवं सर्वप्रमुख स्थान देना आवश्यक है।


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